1980 का दशक था...अफगानिस्तान की धरती एक जंग का मैदान बनी हुई थी....एक तरफ कम्युनिस्ट पार्टी वाली सरकार थी, जिसके समर्थन के लिए सोवियत सेना भी खड़ी थी...और दूसरी तरफ...कम्युनिस्ट पार्टी की कट्टरता के खिलाफ बारूदी हथियार उठाए विद्रोही समूह मुजाहिद्दीन थे...अमेरिका, ब्रिटेन, पाकिस्तान समेत कई देशों ने मुजाहिद्दीन को हर तरह से मदद मुहैया कराई. ..युद्ध में कमजोर पड़ने के बाद 1989 में सोवियत सेना अफगान छोड़ने लगती हैं...इस दौरान अफगान में मुजाहिद्दीन के अलग अलग समूह आपस में ही लड़ने लगते हैं...जो देश में सिविल वॉर छेड़ देती है...1992 में सोवियत रूस के पतन के बाद अफगान की कम्युनिस्ट सरकार भी गिर जाती है..और अफगानिस्तान के भविष्य पर काले बादल मंडराने लगते हैं..
Political Crisis के इस दौर में, मदरसे के कुछ छात्र, पाकिस्तान के समर्थन से एक नए तरह के 'रिफार्म' की घोषणा करते हैं. मुजाहिद्दीन के साथ मिलकर, सोवियत के खिलाफ जंग में अपनी एक आँख खोने वाले मुल्ला उमर को इसका सरगना घोषित किया गया. ये लोग खुद को तालिबान बुलाने लगे..तालिबान पश्तो भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है छात्र...ऐसे छात्र, जो इस्लामिक कट्टरपंथ की विचारधारा पर यकीन करते हैं...जब तालिबान सामने आया तो अफगानिस्तान के लोगों ने उसका स्वागत किया गया....ऐसा इसलिए क्योंकि उस समय अफगानी लोग मुजाहिद्दीनों की आपसी लड़ाई से परेशान थे. शुरुआत में तालिबान ने अफगानिस्तान में मौजूद भ्रष्टाचार को काबू में किया और अव्यवस्था पर नियंत्रण लगाया. आज डर और दहशत का पर्याय बन चुके तालिबान ने अपने नियंत्रण में आने वाले इलाकों को सुरक्षित बनाया ताकि लोग व्यवसाय कर सकें.