कांग्रेस, टीएमसी और एनसीपी समेत अन्य विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए साझे उम्मीदवार के रूप में यशवंत सिन्हा के नाम का ऐलान किया है। इससे पहले विपक्षी दलों के बीच शरद पवार, गोपालकृष्ण गांधी और फ़ारूक़ अब्दुल्ला के नामों पर चर्चा हुई थी। लेकिन इन लोगों ने राष्ट्रपति पद के चुनाव में भाग लेने से इनकार कर दिया। इसके बाद कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने मंगलवार को शरद पवार के घर पर हुई विपक्षी दलों की बैठक के बाद आख़िरकार यशवंत सिन्हा के नाम का ऐलान कर दिया।
लेकिन सवाल उठता है कि कुछ साल पहले तक बीजेपी नेता रहे यशवंत सिन्हा को विपक्ष ने अपने साझा उम्मीदवार के रूप में क्यों चुना? तो बता दें विपक्ष को एक ऐसा चेहरा चाहिए था जो इस चुनाव के लिए दमदार उम्मीदवार लगे। इसके चलते विपक्ष ने सिन्हा की विचारधारा को दरकिनार करते हुए प्रशासनिक अधिकारी के रूप में उनके काम और अनुभव को तरजीह दी।
यशवंत सिन्हा को भारतीय राजनीति के उन चुनिंदा राजनेताओं में गिना जाता है जिन्होंने राजनीति में आने से पहले प्रशासक के रूप में काम किया। 1960 में IAS बनने वाले यशवंत सिन्हा अपने चालीस साल से ज़्यादा लंबे राजनीतिक करियर में अलगअलग -सरकारों में विदेश मंत्री और वित्त मंत्री स्तर के शीर्ष पद संभाल चुके हैं। बिहार के संथाल परगना में डिप्टी कमिश्नर रहते हुए उनकी बहस तत्कालीन मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा से हुई। इस बहस के बाद यशवंत सिन्हा ने जर्मनी में भारतीय दूतावास में फर्स्ट सेक्रेटरी से लेकर दिल्ली ट्रांसपोर्ट ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन के अध्यक्ष जैसे पदों पर बने रहे।
यशवंत सिन्हा ने 1984 में IAS की नौकरी छोड़कर जनता पार्टी में शामिल हो गए। 1989 में जब वीपी सिंह देश के प्रधानमंत्री बने और उन्होंने अपनी सरकार में यशवंत सिन्हा को राज्यमंत्री का पद दिया तो यशवंत सिन्हा नाराज़ हो गए। क्योंकि उन्होंने उस चुनाव में काफी मेहनत की थी। और अपनी वरिष्ठता के आधार वो कैबिनेट मंत्री पद की उम्मीद लगाए थे। लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो उन्होंने राज्यमंत्री का पद लेने से साफ इनकार कर दिया। इसके बाद समय का चक्का घूमा और यशवंत सिन्हा को चंद्रशेखर के निकटतम सहयोगियों में गिना जाने लगा। जब चंद्रशेखर सरकार बनी तो उन्हें वित्त मंत्री बनाया गया। भले ही वो केवल 7 महीने के लिए वित्त मंत्री रह पाए हों लेकिन इस छोटी सी अवधि में भी उन्होंने उस फाइल पर दस्तखत किए जिससे भारतीय रिज़र्व बैंक में रखे 20 टन सोने को बैंक ऑफ़ इंग्लैंड में गिरवी रखा गया। इसके बाद जब चंद्रशेखर सरकार की नैय्या डोली तो यशवंत सिन्हा ने बीजेपी का दामन थाम लिया।
यशवंत सिन्हा को 1998 में एक बार फिर वाजपेयी सरकार में वित्त मंत्रालय की ज़िम्मेदारी दी गई जिसे उन्होंने 2002 तक निभाया। और इसके बाद उन्होंने 2002 से लेकर 2004 तक भारत के विदेश मंत्री का पद भार संभाला। लेकिन वाजपेयी और आडवाणी का दौर जाने के बाद यशवंत सिन्हा की बीजेपी से दूरियां बढ़ती चली गयीं। 2009 लोकसभा चुनाव में यशवंत सिन्हा ने जीत दर्ज की लेकिन 2014 में उन्हें टिकट नहीं दिया गया। उनकी सीट पर उनके बेटे जयंत सिन्हा चुनाव लड़े और जीत दर्ज की। इसके बाद यशवंत सिन्हा की बीजेपी से दूरियां बढ़ती चली गईं। 2018 में उन्होंने बीजेपी के साथ 21 साल लंबा सफर ख़त्म कर दिया। कुछ समय पहले ही वो टीएमसी में शामिल हुए थे और 21 जून, 2022 को उन्होंने टीएमसी से भी इस्तीफ़ा दे दिया। अब वो विपक्ष की तरफ से राष्ट्रपति पद के लिए नामित किए गए हैं।