भारत के हर घर में एक डायलॉग बहुत कॉमन है बेटा धूप में मत खेलो काले हो जाओगे या बेटा चाय कम पीयो रंग सांवला हो जाएगा फिर शादी कैसे होगी....लेकिन गोरा दिखना आखिर इतना जरूरी क्यों है? और इसका शादी या नौकरी से क्या कनेक्शन है? इस पूरी समस्या की जड़ है कलरिज्म.
कलरिज्म क्या है?
कलरिज्म यानि किसी के स्किन कलर टोन के बेस पर उसके साथ डिस्क्रिमिनेशन. हम टीवी, मैगेजीन्स, न्यूजपेपर में रोज ऐसे एड्स देखते हैं जिसमें दिखाया जाता है कि अगर आप गोरे नहीं हैं तो आपकी जिदंगी बेकार है... आपकी गर्लफ्रेंड नहीं बनेगी... शादी नहीं होगी और आप सकसेसफुल भी नहीं हो पाएंगे. अजीब है ना लेकिन यही रिएलिटी है.
भारत में किस तरह बढ़ रहा कलरिज्म ?
हालही में सोशल मीडिया पर शाहरुख खान की बेटी सुहाना को उनके रंग के चलते काफी ट्रोल किया गया. जिस पर सुहाना ने ट्रोलर्स को करारा जवाब देकर उनकी बोलती बंद की थी. इसको लेकर सोशल मीडिया पर Colourism को लेकर बड़ी बहस छिड़ी थी. और इस प्रॉबलम से निपटने के लिए महिलाएं लेती हैं फेयरनेस क्रीम का सहारा.
India में 90% से ज्यादा महिलाओं को लगता है कि गोरा होना सबसे जरूरी है और इसके लिए वो इस्तेमाल करती है फेयरनेस प्रॉडक्ट्स... कई फिल्मों में भी दिखाया जाता है कि अगर आप गोरे हो तो आप बाकियों से बेहतर हैं. भारत में सबसे पहली फेयरनेस क्रीम आई 1919 में जिसका नाम था अफगान स्नो.
India Fairness Cream & Bleach Market Overview के मुताबिक 2019 में, भारतीय फेयरनेस क्रीम बाजार लगभग 3,000 करोड़ रुपये का था. स्टडी में उम्मीद जताई गई कि 2023 तक ये मार्केट 5,000 करोड़ रुपये तक पहुंच जाएगा. WHO की 2019 की एक स्टडी के मुताबिक भारत में स्किनकेयर मार्केट का लगभग आधा हिस्सा स्किन लाइटनिंग प्रॉडक्ट्स का है.
उसी साल WHO की एक और स्टडी में सामने आया कि इन skin lightening प्रॉडक्ट्स में मरकुरी का इस्तेमाल किया जाता है. कुछ फेयरनेस क्रीम में स्टीरियॉइड भी पाया गया जिससे skin cancer, skin pigmentation और skin allergies होने की संभावना है. Japan, South Africa जैसे देशों में ऐसे प्रॉडक्ट्स को बैन किया जा चुका है लेकिन इंडिया में ये मार्केट बढ़ता ही जा रहा है.
कैसे हुई Colourism की शुरूआत?
गोरेपन से इस ऑबसेशन को समझने के लिए थोड़ा पीछे चलते है और जानते हैं इसकी हिस्ट्री. परशियन्स, मुग्ल्स और ब्रिटिशर्स जिन्होंने कई सालों तक भारत पर रूल किया था वो फेयर स्किन्ड थे और कहीं न कहीं हमे ये लगने लगा कि जो फेयर होते हैं वो पॉवरफुल होते हैं.
इसकी के साथ गोरेपन को अपर कास्ट और क्लास से भी एसोसिएट किया जाने लगा. जो लोवर कास्ट और गरीब मजदूर बाहर काम करते वो धूप में रहकर और डार्क हो जाते वहीं अपर कास्ट या अमीर लोग जो छांव में रहते वो काले नहीं पड़ते.
गोरेपन से ये obsession सिर्फ शादी या नौकरी तक सीमित नहीं है. 2014 में गुड़गांव की रहने वाली पूजा पर काले होने के चलते दहेज का प्रेशर डाला गया और उसने सुसाइड कर लिया. 2016 में वेस्ट बंगाल की सोमेरा बीबी को उसके पति और इन लॉज़ ने जिंदा जला दिया क्योंकि उसका रंग सांवला था.
vaseline india की एक रिपोर्ट के मुताबिक 10 में से 8 महिलाएं सोचती हैं कि गोरा होने से उन्हें सोसाइटी में एडिशनल एडवांटेज मिलेगा. एक स्टडी के मुताबिक कई लड़कियां तो सांवली होने के चलते रिजेक्ट होने के डर से जॉब्स में अप्लाई ही नहीं करती. इससे कहीं न कहीं इकोनॉमी और कंपनीज में मैन वीमेन रेशियो पर असर पड़ता है.
क्या इस समस्या का कुछ हल है?
इस प्रॉबलम को सॉल्व करने के लिए ASCI advertising standards council of India 2014 में वो एड्स बैन कर दिए जिसमें फेयर लोगों को डार्क लोगों से सुपिरियर दिखाया गया. हालांकि इसका कुछ खास असर देखने को नहीं मिला. कंपनीज कुछ न कुछ लूपहोल निकाल कर फिर वही गलती दोहराती है. इसके अलावा इस समस्या को हाइलाइट करने के लिए कई कैंपेन की शुरूआत की गई जैसे- डार्क इज ब्यूटीफुल या कलर मी राइट. हर बदलाव की शुरूआत होती है आपके अपने घर से... शुरू से ही बच्चों को कहानियों में दिखाया जाता है कि हीरो गोरे होते हैं और राक्षस काले... जबकि हमें बच्चों को शुरूआत से ही सिखाना चाहिए कि स्किन टोन किसी इंसान का वर्थ नहीं डिसाइड करता.