बिहार में बीजेपी के साथ सरकार चला रहे नीतीश कुमार जातीय जनगणना को लेकर अड़े हैं। इसके लिए उन्होंने 1 जून को सर्वदलीय बैठक बुलवाई, जिसमें सभी दलों ने जातीय जनगणना कराए जाने की रूपरेखा पर चर्चा की। बैठक के बाद सीएम नीतीश कुमार ने जानकारी देते हुए कहा, ‘सभी की सहमति से बिहार में जातीय जनगणना कराने का फैसला लिया गया है। ऐसे में बहुत जल्द कैबिनेट मीटिंग बुलाई जाएगी। साथ ही जातीय जनगणना कराने के लिए अधिकारियों और कर्मचारियों को ट्रेनिंग दी जाएगी।’
बात करें भारत में जनगणना के इतिहास की तो। सबसे पहले 1872 में पहली जनगणना हुई। लेकिन प्रथम समकालीन जनगणना की शुरुआत 1881 में मानी गई। आजादी के बाद 1951 में पहली जनगणना हुई। इसके बाद हर 10 साल बाद भारत में जनगणना कराई जाती रही है। आजादी के बाद 1951 में जातिगत जनगणना कराने का प्रस्ताव केंद्र सरकार ने ये कहते हुए ठुकरा दिया था कि इससे समाज का ताना-बाना बिगड़ सकता है। 1951 के बाद से लेकर 2011 तक की जनगणना में केवल अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) से जुड़े आंकड़े प्रकाशित किए जाते रहे। 2011 में भी जातिगत आधार पर जनगणना हुई। लेकिन सरकार ने रिपोर्ट जारी नहीं की। 2021 में कोविड की वजह से जनगणना नहीं कराई जा सकी लेकिन बीते 10 मई को गृहमंत्री अमित शाह ने ई-जनगणना कराए जाने की बात कही है।
भारत में आखिरी बार 1931 में जातिगत आधार पर जनगणना की गई थी। उस वक्त देश में अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) की आबादी 52 फीसदी थी। मंडल कमीशन ने भी इसी आंकड़े को आधार बनाया था, जिसकी रिपोर्ट 1991 में लागू की गई। तब से इसी आंकड़े को आधार बनाकर सरकार ओबीसी वर्ग के लिए नीतियां बनाती रही है। कमोबेश, हर जनगणना के पहले जातीय जनगणना की मांग की जाती रही है। बता दें बिहार विधानमंडल के दोनों सदनों से पहले भी दो बार सर्वसम्मति से जातीय जनगणना कराने का प्रस्ताव पास हो चुका है। बावजूद इसके जनगणना नहीं कराई जा सकी है। बिहार विधानसभा में सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव को केंद्र सरकार ने तवज्जो नहीं दी। सीएम नीतीश कुमार ने पीएम मोदी को पत्र लिखकर मांग की है कि 2021 में होने वाली जनगणना जाति आधारित हो।
बात की जाए जातिगत जनगणना से राजनीतिक दलों को होने वाले लाभ की तो, बता दें इससे क्षेत्रीय दलों को राजनीति करने का नया आधार मिल जाता है। बिहार, यूपी, हरियाणा जैसे राज्यों में क्षेत्रीय दल काफी मजबूत स्थिति में हैं। उनकी राजनीति ही जाति आधारित है। वैसे भी देश की राजनीति में पिछड़े वर्ग का दखल बढ़ा है। एक अनुमान के मुताबिक बिहार में ओबीसी आबादी 26 फीसदी है। नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू को अति पिछड़ा वर्ग की जातियों के अलावा ओबीसी में यादव को छोड़ अन्य जातियों का साथ मिलता रहा है। हालांकि 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में उन्हें थोड़ा झटका जरूर लगा। उधर RJD भी 2020 में मिले वोट को एकजुट रखना चाहती है। इसलिए लालू प्रसाद यादव पिछड़ा वर्ग का सच्चा हितैषी बनने के लिए जातिगत जनगणना की वकालत कर रहे हैं। बीजेपी जो कभी सवर्णों और बनिया वर्ग की पार्टी समझी जाती थी। अब सभी जातियों में अपना जनाधार बना चुकी है। इसलिए बीजेपी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के साथ-साथ ओबीसी वर्ग को लामबंद करना चाहती है। साथ ही गरीब सवर्णों को आरक्षण और जनसंख्या नियंत्रण जैसे कानून के सहारे हिंदुओं को एकजुट करने की कोशिश कर रही है। कुल मिलाकर ये सारा खेल अन्य पिछड़ी जातियों के वोट बैंक साधने से जुड़ा है।
जातीय जनगणना और जनसंख्या नियंत्रण कानून के मुद्दे पर एनडीए में नूरा-कुश्ती जारी है। जानकारों का मानना है कि जनसंख्या नियंत्रण कानून भले ही हाशिए पर जा सकता है। लेकिन जातीय जनगणना का जिन्न तो राजनीतिक दलों को सताता ही रहेगा। क्योंकि भारतीय समाज में जाति का वजूद जल्द खत्म होता नहीं दिख रहा है। देश के अखबारों में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापन ही देख लीजिए।लोग 21वीं सदी में भी अपनी ही जाति के वर-वधू ढूंढते हैं।जाति समाज पर किस हद तक प्रभावी है, इसे समझने को ये काफी है।