गांधीजी ने अपनी हत्या के तीन दिन पहले यानी 27 जनवरी 1948 को एक नोट में लिखा था कि 'अपने वर्तमान स्वरूप में कांग्रेस 'अपनी भूमिका पूरी कर चुकी है'. अब इसे भंग करके एक लोक सेवक संघ में तब्दील कर देना चाहिए.' इसके कुछ समय बाद 30 जनवरी 1948 को गांधी जी की हत्या हो गई. हत्या के दो दिन बाद यानि 2 फरवरी 1948 को उनका लेख हरिजन पत्रिका में प्रकाशित हुआ... शीर्षक था- 'उनकी अंतिम इच्छा और वसीयतनामा'. ये लेख उनके सहयोगियों ने प्रकाशित किया था.
उसी दिन हरिजन में प्रकाशित एक और स्टेटमेंट में लिखा था कि 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सबसे पुराना राष्ट्रीय राजनीतिक संगठन है जिसने कई अहिंसक संघर्षों के माध्यम से आजादी जीती है. इसे ख़त्म करने की अनुमति नहीं दी जा सकती. ये सिर्फ़ राष्ट्र के साथ ही ख़त्म होगा.' उनके इस बयान से साफ होता है कि गांधीजी उस समय भी कांग्रेस की भूमिका समझते थे और उसके भविष्य के बारे में सोच रहे थे. गांधी जी ने आगे लिखा, "कांग्रेस ने राजनीतिक आजादी तो हासिल कर ली है, मगर उसे अभी आर्थिक, सामाजिक और नैतिक आजादी हासिल करनी है. ये आजादी चूंकि रचनात्मक हैं, कम उत्तेजक हैं, और भड़कीली नहीं हैं, इसलिए इन्हें हासिल करना राजनीतिक आजादी से ज्यादा मुश्किल है."
गांधीजी इस आर्थिक, सामाजिक और नैतिक आजादी को हासिल करने के लिए इसी कॉलम में कांग्रेस संगठन के विस्तार का सुझाव देते हैं. वो लिखते हैं 'कांग्रेस को अपने सदस्यों के विशेष रजिस्टर को समाप्त कर देना चाहिए, जिसमें सदस्यों की तादाद कभी भी एक करोड़ से आगे नहीं बढ़ी...अब कांग्रेस का रजिस्टर इतना बड़ा होना चाहिए कि देश के मतदाताओं की सूची में जितने भी पुरुषों और स्त्रियों के नाम हैं, वे सब उसमें आ जाएं.'
उनके लिखे इस अंश की व्याख्या की जाए तो पता चलता है कि आजादी के बाद के वक्त को ध्यान में रखते हुए महात्मा गांधी कांग्रेस के विस्तार की सोच रहे थे.
दरअसल गांधीजी ने जो लिखा था वो एक संविधान का मसौदा था ना कि उनकी अंतिम इच्छा या वसीयतनामा. अगर गांधीजी जिंदा होते तो इस बात की पूरी संभावना थी कि इस मसौदे पर कांग्रेस के अंदर संपूर्णता से बहस होती. गांधीजी ने वो बात कांग्रेस और उसके संगठन की आजादी के बाद वाले भारत की जरूरत के हिसाब से पुनर्गठन को लेकर लिखी थी.
वहीं दूसरी तरफ लेख के शीर्षक को देखते हुए कुछ विद्वानों ने इसका अलग मतलब भी निकाला. गांधी जी ने वो नोट कांग्रेस को खत्म करने के मकसद से नहीं की थी बल्कि पार्टी को नई परिस्थितियों का सामना करने के हिसाब से ढालने के संदर्भ में की थी. साफ है कि गांधीजी की कोई राय कांग्रेस के आधिकारिक पक्ष के विरुद्ध नहीं थी. इस बात का दावा बार-बार इसलिए किया जाता है ताकि इस मिथ को सही साबित किया जा सके.